Sunday, November 27, 2016

समझदार बहू.........शबनम शर्मा


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शाम को गरमी थोड़ी थमी तो मैं पड़ोस में जाकर निशा के पास बैठ गई। उसकी सासू माँ कई दिनों से बीमार है। सोचा ख़बर भी ले आऊँ और बैठ भी आऊँ। मेरे बैठे-बैठे उसकी तीनों देवरानियाँ भी आ गईं। 

‘‘अम्मा जी, कैसी हैं?’’ शिष्टाचारवश पूछ कर इतमीनान से चाय-पानी पीने लगी। फिर एक-एक करके अम्माजी की बातें होने लगी। सिर्फ़ शिकायतें,  ‘‘जब मैं आई तो अम्माजी ने ऐसा कहा, 
वैसा कहा, ये किया, वो किया।’’ 
आध घंटे बाद सब यह कहकर चली गईं कि उन्होंने 
शाम का खाना बनाना है। बच्चे इन्तज़ार कर रहे हैं। 
कोई भी अम्माजी के कमरे तक न गया। 

उनके जाने के बाद मैं निशा से पूछ बैठी, ‘‘निशा अम्माजी, आज 1 साल से बीमार हैं और तेरे ही पास हैं। तेरे मन में नहीं आता कि कोई और भी रखे या इनका काम करे, माँ तो सबकी है।’’ 

उसका उत्तर सुनकर मैं तो जड़-सी हो गई। वह बोली, ‘‘बहनजी, ये सात बच्चों की माँ है। इसने रात-रात भर गीला रहकर सबको पाला। ये जो आप देख रही हैं न मेरा घर, पति, बेटा, शानो-शौकत सब इसकी है। अपनी-अपनी समझ है। मैं तो सोचती हूँ इन्हें क्या-क्या खिला-पिला दूँ, कितना सुख दूँ, मेरा बेटा, इनका पोता सुबह-शाम इनके पास बैठती हैं, ये मुस्कराती हैं, इन्हें ठंडा पिलाता है तो दुआएँ देती हैँ। जब मैं इनको नहलाती, खिलाती-पिलाती हूँ, तो जो संतुष्टि मेरे पति को मिलती है, देखकर मैं धन्य हो जाती हूँ और वह बड़े ही उत्साह से बोली, एक बात और है ये जहाँ भी रहेंगी, घर में खुशहाली ही रहेगी, 
ये तो मेरा तीसरा बच्चा बन चुकी हैं।’’ और ये कहकर वो रो पड़ी।

मैं इस ज़माने में उसकी यह समझदारी देखकर हैरान थी और मन ही मन उसे सराह रही थी।

-शबनम शर्मा

4 comments:

  1. वाह !!बहुतसुंदर विचार । काश सभी ऐसा सोचने लगें

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  2. है कहीं पर धूप अंधेरे के बीच से छिरती हुई ।

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