Monday, January 22, 2018

इक न इक दिन.......निर्मल सिद्धू

इक न इक दिन जनाब बदलेंगे
जब होगा, बेहिसाब बदलेंगे

यादे माज़ी जो मुस्कुरायेगा
दिल के सारे जवाब बदलेंगे

ख़ौफ़ अपनों का डर ज़माने का
झूठे उनके नक़ाब बदलेंगे

दिल में डर काँटों का लगा पलने
हाथों के अब गुलाब बदलेंगे

कौन जीता वक़्त से निर्मल यां
जो बने हैं नवाब बदलेंगे
-निर्मल सिद्धू

3 comments:

  1. बहुत सुंदर और शानदार रचना

    ReplyDelete
  2. तेरा बाबा
    बूढे बाबा का जब चश्मा टूटा
    बोला बेटा कुछ धुंधला धुंधला है
    तूं मेरा चश्मां बनवा दे,
    मोबाइल में मशगूल
    गर्दन मोड़े बिना में बोला
    ठीक है बाबा कल बनवा दुंगा,
    बेटा आज ही बनवा दे
    देख सकूं हसीं दुनियां
    ना रहूं कल तक शायद जिंदा,
    जिद ना करो बाबा
    आज थोड़ा काम है
    वेसे भी बूढी आंखों से एक दिन में
    अब क्या देख लोगे दुनिया,
    आंखों में दो मोती चमके
    लहजे में शहद मिला के
    बाबा बोले बेठो बेटा
    छोड़ो यह चश्मा वस्मा
    बचपन का इक किस्सा सुनलो
    उस दिन तेरी साईकल टूटी थी
    शायद तेरी स्कूल की छुट्टी थी
    तूं चीखा था चिल्लाया था
    घर में तूफान मचाया था
    में थका हारा काम से आया था
    तूं तुतला कर बोला था
    बाबा मेरी गाड़ी टूट गई
    अभी दूसरी ला दो
    या फिर इसको ही चला दो
    मेने कहा था बेटा कल ला दुंगा
    तेरी आंखों में आंसू थे
    तूने जिद पकड़ ली थी
    तेरी जिद के आगे में हार गया था
    उसी वक्त में बाजार गया था
    उस दिन जो कुछ कमाया था
    उसी से तेरी साईकल ले आया था
    तेरा बाबा था ना
    तेरी आंखों में आंसू केसे सहता
    उछल कूद को देखकर
    में अपनी थकान भूल गया था
    तूं जितना खुश था उस दिन
    में भी उतना खुश था
    आखिर "तेरा बाबा था ना"

    ReplyDelete
  3. आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल मंगलवार (23-01-2018) को "जीवित हुआ बसन्त" (चर्चा अंक-2857) पर भी होगी।
    --
    चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
    जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
    --
    बसन्तपंचमी की हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
    सादर...!
    डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'

    ReplyDelete