Thursday, February 8, 2018

पागल मन....लक्ष्मीनारायण गुप्त


शराब है, मस्ती है, बेफ़िक्री है
मगर साकी नहीं पास है
बिन साकी के शराब पीने में
न मज़ा है, न हुलास है

साकी को देखा तो नीयत बदल गई
क्या कहूँ मेरी तक़दीर बिगड़ गई
साकी को यह बात बताऊँ कैसे
ना सुनने की हिम्मत मैं कर पाऊँ कैसे


पागल मन की बात बताऊं कैसे
नामुमकिन को मुमकिन कर पाऊँ कैसे
तू ही बता तुझे मैं पाऊँ कैसे
दीवाने दिल की प्यास बुझाऊँ कैसे

नहीं बताने की हिम्मत है मुझमें
पर नज़र मिलाना चाहूँगा मैं तुझसे
किस अदा से तू शराब ढालती प्याले में
मज़ा आगया तुझसे नज़र मिल जाने में

पागल मन को समझाता हूँ
पाने की उम्मीद छोड़, तू हारा
नज़र मिल गई, क़िस्मत अच्छी
क्या यह कम है यारा

-लक्ष्मीनारायण गुप्त

2 comments:

  1. बहुत सुंदर रचना
    नायब प्रस्तुति

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  2. आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल शुक्रवार (09-02-2017) को (चर्चा अंक-2874) पर भी होगी।
    --
    सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
    --
    चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट अक्सर नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
    जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
    हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
    सादर...!
    डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'

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